हमारी ही तमन्ना क्यूँ करो तुम
तुम्हारी ही तमन्ना क्यूँ करें हम
हमारी ही तमन्ना क्यूँ करो तुम
तुम्हारी ही तमन्ना क्यूँ करें हम
वो जो न आने वाला है ना उस से मुझ को मतलब था
आने वालों से क्या मतलब आते हैं आते होंगे
अब मिरी कोई ज़िंदगी ही नहीं
अब भी तुम मेरी ज़िंदगी हो क्या
ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता
एक ही शख़्स था जहान में क्या
साबित हुआ सुकून-ए-दिल-ओ-जाँ कहीं नहीं
रिश्तों में ढूँढता है तो ढूँडा करे कोई
आज मुझ को बहुत बुरा कह कर
आप ने नाम तो लिया मेरा
ये काफ़ी है कि हम दुश्मन नहीं हैं
वफ़ा-दारी का दावा क्यूँ करें हम
भूल जाना नहीं गुनाह उसे
याद करना उसे सवाब नहीं
इलाज ये है कि मजबूर कर दिया जाऊँ
वगरना यूँ तो किसी की नहीं सुनी मैं ने
मैं रहा उम्र भर जुदा ख़ुद से
याद मैं ख़ुद को उम्र भर आया
याद उसे इंतिहाई करते हैं
सो हम उस की बुराई करते हैं
नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम
बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूँ करें हम
यूँ जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या
अब तो हर बात याद रहती है
ग़ालिबन मैं किसी को भूल गया
अपना रिश्ता ज़मीं से ही रक्खो
कुछ नहीं आसमान में रक्खा
कोई मुझ तक पहुँच नहीं पाता
इतना आसान है पता मेरा
हाँ ठीक है मैं अपनी अना का मरीज़ हूँ
आख़िर मिरे मिज़ाज में क्यूँ दख़्ल दे कोई
जुर्म में हम कमी करें भी तो क्यूँ
तुम सज़ा भी तो कम नहीं करते
तुम्हारी याद में जीने की आरज़ू है अभी
कुछ अपना हाल सँभालूँ अगर इजाज़त हो
मेरी हर बात बे-असर ही रही
नक़्स है कुछ मिरे बयान में क्या
मुझ से अब लोग कम ही मिलते हैं
यूँ भी मैं हट गया हूँ मंज़र से
मैं जुर्म का ए'तिराफ़ कर के
कुछ और है जो छुपा गया हूँ
तेग़-बाज़ी का शौक़ अपनी जगह
आप तो क़त्ल-ए-आम कर रहे हैं
तो क्या सच-मुच जुदाई मुझ से कर ली
तो ख़ुद अपने को आधा कर लिया क्या
हमारे ज़ख़्म-ए-तमन्ना पुराने हो गए हैं
कि उस गली में गए अब ज़माने हो गए हैं
अब तुम कभी न आओगे यानी कभी कभी
रुख़्सत करो मुझे कोई वादा किए बग़ैर
वफ़ा इख़्लास क़ुर्बानी मोहब्बत
अब इन लफ़्ज़ों का पीछा क्यूँ करें हम
है वो बेचारगी का हाल कि हम
हर किसी को सलाम कर रहे हैं
उस से हर-दम मोआ'मला है मगर
दरमियाँ कोई सिलसिला ही नहीं
हमें शिकवा नहीं इक दूसरे से
मनाना चाहिए इस पर ख़ुशी क्या
फिर उस गली से अपना गुज़र चाहता है दिल
अब उस गली को कौन सी बस्ती से लाऊँ मैं
मुझ को ये होश ही न था तू मिरे बाज़ुओं में है
यानी तुझे अभी तलक मैं ने रिहा नहीं किया
ज़माना था वो दिल की ज़िंदगी का
तिरी फ़ुर्क़त के दिन लाऊँ कहाँ से
कितनी वहशत है दरमियान-ए-हुजूम
जिस को देखो गया हुआ है कहीं